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रुक्मिणी परिणय / नवम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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निहत अश्व, रथ चूर्ण, सारथिक
संग रथिक अपनहुँ निर्जीव।
समर-भूमिमे सुचिर सुतै अछि
आगु अबै अछि जे उद्ग्रीव।

संगरमे मरि मत्त मतंगज
अमित खसै अछि संग सवार।
गैरिक रंजित बूझि पड़ै अछि
रण-अवनीमे ढेर पहाड़।

घोड़ा चढ़ि-चढ़ि आगु अबै अछि
सैनिक आयुध अपन उठाय।
कटि-कटि शीश खसै अछि चटचट
चारक कुमहर सम ओघराय।

पैदल दौड़ि उदायुध आबय
अबितहिं जाय तुरत कटि मुंड।
कने काल घरि दौड़ि खसै अछि
ठेसि मृतकसँ भूपर रुंड।

हाथक लाघव देखि विलक्षण
दाँते आङुर अपन दबाय।
बाह बाह आराव अनेरे
अरिहुक आननसँ बहराय।

साहस छोड़ि हृदय यदि देलक
आयुध काज तखन की देत?
विफल जाय सभ साधन रहितहुँ
अलस किसानक जहिना खेत।

भागल शत्रु नरेशक सैनिक
परम भयातुर लय-लय लंक।
के ककरा किछु कहत? प्राणमे
स्वयं समायल छल आतंक।

किछु क्षण दौड़ल गेल सोहपर
अन्तिम शिथिल भेल पदवेग।
सूपक भट्टा जकाँ पड़ै अछि
एमहर ओमहर डगमग डेग।

आहत मर्म मुइल बाटहिमे
मुहसँ रक्त कते बोकरैत।
टूटल टाङ चलय नङराइत
घुरि-घुरि बहुतो पाछु तकैत।

मारि भगओलक सैन्य समरसँ
छौड़ा छोट कते निर्भीक।
दौड़ल साल्व लगै अछि दूनू
लोचन फूल पलाशक थीक।

वक्षस्थलपर आबि गदासँ
कयलक चटदय चोट महान।
खसला गद उठला पुनि तत्क्षण
इन्द्रक पविसँ रघुक समान।

दाउक देल गदा गद लय कर
कयलनि उरपर तेहन प्रहार।
खसल धरापर साल्व धराधिप
रहल न सुधि-बुधि तन संचार।

पौंड्रक वीर विदूरथ दौड़ल
दौड़ल दन्तवक्त्र मगधेश।
घूआँ सन मुह अपन बनओने
क्रोधे अन्ध स्वयं जनु शेष।

पौंड्रक तीव्र विशिखसँ देलक
रथक पताका शीघ्र उड़ाय।
मर्मभेदि दुर्वचनक भयस
प्रीति-जकाँ गेल दूर पड़ाय।

दन्तवक्त्र लय गदा हाथमे
तुरत महारथ देलक तोड़ि।
अनायास लाठीसँ दै अछि
माटिक घैल जेना क्यो फोड़ि।

जरासंघ शर चारि चलओलक
चारू अश्व खसल ओघराय।
मारि खसओलक सूत विदूरथ
गद तत्काल भेला असहाय।

झाँट-बिहारिक वेग जीति जनु
अयला आगु प्रबल बलराम।
लगला मूसर मारि खसाबय
कंजक वन जनि गज उद्दाम।

दन्तवक्त्र छल आगु वदनमे
बड़-बड़ दाँत छलै अनमेल।
देल हलायुध मूसर मुहपर
टूटि खसल भागल चल गेल।

पड़ल ठहाका युद्ध भूमिमे
हास्यविधायक दृश्य निहारि।
रोकि न सकला हँसी रोकनहुँ
राजकुमारिक संग मुरारि।

जरासंघ जा तानि शरासन
क्रुद्ध करै अछि शरसन्धान।
धनु-गुण देलनि काटि सात्यकी
मारि अपन फरसा-सन बाण।

अवहितचित्त चटाचट हलधर
ऊपरसँ दस मूसर देल।
जरान्ध भुकि खसल विमूर्च्छित
सूत रथक सङ रण तजि गेल

तावत पौंड्रक आबि चलओलक
तीव्र विशिख सभ शक्ति लगाय।
हलसँ रोकि मुषलसँ लगले
देलनि रणमे राम सुताय।

बिगड़ि विदूरथ खड्ग चलओलक
भेल विफल हर ऊपर आबि।
पड़ल मूसरक मारि तड़ातड़ि
चारि चितंग खसल मुह बाबि।

जे छल सैनिक अड़ल युद्धमे
मनमे जकरा छल अभिमान।
हलसँ घीचि मुषलसँ मारल
भेल क्षणहिंमे रण-अवसान।

पौंड्रक साल्व मगधपति भागल
भागल ससरि विदूरथ राय।
जाय जेना लोकक भय गीदड़
खरहीमे नाङरि सुटकाय।

शोणित वारि, वाजि रथ कुंजर
मृत मानव जल-जन्तु समान।
समर भूमिमे भेल तरंगित
अरुण सलिल नद शोण महान।

रण आङन निर्जीव पड़ल छल
हय नर नागक अनगिन ढेर।
पवनक पाबि निमन्त्रण आयल
काक कुकुर गीधक जुटि जेर।

नमरल जीह खसय जल टपटप
टूटल आबि मृतकपर श्वान।
स्वजन बन्धु अवलोकि समागत
चलल सङहिं सङ युद्ध महान।

छीना छपटी पटकम-पटका
नहि सन्तोष अनीतिक दास।
निरखि मनुष्यक वृत्ति करै अछि
कुकुर-समाज जेना अभ्यास।

खयलक मांस अलस भय बैसल
गीधक पाँती पाँखि पसारि।
जहिना धूर्त्त बनै अछि निर्मल
अनकर गरदनि छप दय मारि।

जीवित अंग विकल नर लोचन
फोड़ि रहल अछि निर्मम काक।
विवश अशक्तक धन हरि लै अछि
जहिना निष्ठुर चंड चलात।

झाँउ झाँउ कय कुकुर कहै अछि
रे गीदड़ जो दूर पड़ाय।
नहि तँ तोहर देब दाँतसँ
घरसूरक हम मैल छोड़ाय

बाजल गीदड़ ठाढ़ दूरमे
दै छह बन्धु, किये फटकार।
नहि छह देखि रहल तो एखनहु
व्यर्थ घमंडक फल साकार।

देखि दिवस तो महावीर बनि
छीनह वन्य पशुक आहार।
हम तँ तोहर करब रातिमे
अबिहह, नीक जकाँ सत्कार।

छल खाइत चुनि मांस, पिबै छल
शोणित भरि-भरि भग्न कपाल।
अट्टहास कय नृत्य करै छल
भूत परेत प्रमथ बेताल।

गाँथि-गाँथि अँतड़ीमे मुंडक
माला अछि बनबैत पिशाच।
दैत पिशाचिक कंठ प्रेमसँ
युग मिनि नग्न करै अछि नाच।

अवगत कय वृत्तान्त कनै अछि
बापक संग एतय शिशुपाल।
लाजक लेल कहै अछि हे शिव,
फाटओ धरती जाइ पताल।

जरासन्ध आदिक नरपतिके
लखि उर भेल तरंगित पीड़।
स्वजन बन्धु अवलोकि बिपतिमे
ह्वै अछि प्रायः लोक अधीर।

लागल कहय, वृथा मम पौरुष,
आयुध पुंज हमर निस्तत्व।
लेलक छीनि प्रगट मनुजाधम
स्वत्वक संगहि शौर्य महत्व।

राज-सुतक हरण कय लेलक
भेल स्वयं नहि संगर जाय।
अपन देखायब कोना लोकमे
मुह निर्लज्ज जकाँ घर जाय?

हमरा लेल सुहृज्जन, सम्प्रति
अछि केवल दुइगोट उपाय।
आत्मघात हम करी अन्यथा
रही विजन वनबीच नुकाय।

जखन मूसरक मारि सेरायल
भेल जखन थिर जीवनकोष।
बाजय लागल मगध महीपति
देमय लागल बोल भरोस।

वीर, किये मुह मलिन करैछी
किये मनैछी मन संकोच।
हानि-लाभ युग पृष्ठ जीवनक
विज्ञ करै छथि हर्ष न सोच।

सतरह बेर विकट रण कय-कय
गेल छलहुँ यद्यपि हम हारि।
कयलहुँ मन नहि छोट अन्तमे
सभहुँ जनै छी, देल खेहारि।

त्यागब तन की विपिन समायब
अहाँ पराभवजन्य अधीर।
विकल धीरता कतय जाइ छथि
आश्रयहीन कहू, रणधीर?

लोक-प्रयत्नक पाछु रहै अछि
सक्रिय कोनो शक्ति अदृश्य।
कखनहुँ सुफल पुनि कखनहुँ
ह्वै अछि ते जगतीतल दृश्य।

नीकक क्षण पुनि आबि सकै अछि
नहि सभ काल रहय अधलाक।
दिनक अन्तमे कहाँ रहै अछि
रौद रविक ओ दुपहरियाक?

प्रति कानन नहि द्विरद रहै अछि
नहि प्रति शैल स्वर्ण-मणि कोष।
नहि प्रति युद्ध विजय अछि सम्भव
ते मतिमान करथि सन्तोष।

सुलभ एकसँ एक सुन्दरी
नामी नृपति एकसँ एक।
एक विवाहक कोन कथा यदि
चाहब हैत विवाह अनेक।

एखन समय प्रतिकूल अपन बुझि
सकल धराधिप घर घुरि जाउ।
शक्तिक संचय कय सभ कखनहुँ
जगती यादव-हीन बनाउ।

साहस शक्ति विहीन करथु की
के नहि बूझत बात फरीछ।
अपना मनके सभहुँ बुझओलनि
हारल नटुआ झुटका बीछ।

चैद्य बनल वर आयल वधू बनल घर जाय।
द्विरद पृष्ठ छल आयल चढ़ि महफापर जाय।

जनके जखन लगैत छै कर्मक निर्मम डाङ।
सभ किछु विफल बनैत छै साधन सिद्धि समाङ।

साधन सिद्धि समाङ विफल, निष्फल अभिलाषा
छृबितहि सोन अनेर बनै अछि करमे काँसा।
सुधा गरल अछि ह्वैत कुसुम वज्रक अनुकारी
जाइछ बुद्धि हेराय बनल अलबौकक टाड़ी।

नवम सर्ग समाप्त