रुखसत से पहले / दिनेश जुगरान
मैंने ही हर बार
देर की है
निर्णय लेने में
हवा तो कई बार गुजरी
मेरे बहुत करीब से
हाथ थे जिस्म में लिपटे हुए
और मुट्ठियाँ बंद
आवाज़ें भटकती हुई
रोशनी वाले चौराहे से
गुजर कर
मेरी गली की कगार तक
पहुँच गई हैं
एक हत्यारा भी
दाखिल होने वाला होगा
उसकी परछाईं बिखरी हुई है
इस बेजान लम्हे में
तुम मेरे बहुत करीब से भी गुजरो
तो भी
उन हमला करने वाले हाथों को
देख नहीं पाओगे
बचाना तो कभी
तुम्हारी कोशिश में शामिल नहीं था
इस शहर की पुरानी इमारतें
अपने मौन में
किसे याद करती हैं
इनकी आखें कहाँ हैं
कोई भी आवाज क्यों सुनाई नहीं देती
सारी खामोशी मेरी पीठ पर लदी है
एक अजनबी
दीवार के पास खड़ा
मुस्कुरा रहा है
वे लम्हे
जिन्हें मैंने अपना साक्षी बनाया था
मेरी हड्डियों में चुभ रहे हैं
एक गूँगा व्यक्ति
बहुत देर से
मेरे करीब बैठा हुआ है
मेरी आवाज का सारा तिलिस्म
गायब हो चुका है
बहुत सारे चकनाचूर चेहरों के बीच
तुम मुझे साफ दिखाई दे रहे हो
एक तारा
जिसकी आँखें हैं नम
हौले से आवाज देकर
रोकता है मुझे
उसकी मुट्ठियों में बंद है
शायद
रूख्सत से पहले
गुजरा हुआ वक्त
मेरी याददाश्त का फ़रिश्ता
कहीं गुम हो गया है
जब देर रात
देह में उठता है दर्द
तब मेरी आँखों
और होठों का फासला
बहुत कम हो जाता है
मुझे अकेला छोड़ दो
मुझे जाना है
अपने बेतरतीब
और बेवजह बातों के
सिलसिलों को
आगे बढ़ाने के लिए
जहाँ नब्बे साल की दादी
अकेले ही रात को
पहाड़ों में
एक लाठी के साथ
अपनी गाय को
खोजने के लिए निकल जाती है