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रुदन का राग / अनूप सेठी

तू मेरे सम्मुख है मौन
शताब्दियां हो गईं
संवाद साधने की तमाम कोशिशें नाकाम हैं

शताब्दियाँ तेरे भीतर समायी हैं
शताब्दियों से सँवाद कायम करने का दँभ मेरे भीतर पसरा है

अजब है रिश्ता
गजब है तू

आँखें झुलसे हुए खाबों की कब्रगाह हैं
देह में हज़ारों सालों के खून पसीने का दाह है

कशीदे काढ़ती आई हैं मेरी पुश्तें
नैनों के बनाके नामालूम कितने नक्शे
देह की दसियों हज़ार दास्तानों के दस्तकार
खाए पीए पगुराए मेरे पुरखे

अधूरी रही आईं अंबर को धरती पर
उतारने की आशाएं सारी

क्या सोच के लादे हुए हो सारी कायनात
झुके कँधों पर मेरे भाई

क्या करूँ क्या कहूँ
महज़ बुत न बने तेरा

घोष हो घनघोर तेरे गले से
शताब्दियाँ पिघला हुआ लावा हो जाएं
अंगुलियां मेरी गल जाएँ कँठ रुँध जाए

तू ओंठ फड़फड़ा भर दे
मैं रुदन का राग गाऊँ
तेरे आख्यान से गुँजाएमान हो उट्ठे अँतरिक्ष।
                             (1997)