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रूखापन / प्रभात
Kavita Kosh से
मैं चुप रहता हूँ
उसे खटकता नहीं
मैं बोलता हूँ
उसके कान उत्सुक नहीं रहते
मैं आता हूँ
उसकी नज़र नहीं उठती
मैं जाता हूँ
उसका दिल नहीं डूबता
मुझे कुछ कहना होता है
उसकी दूसरों से बातें ख़त्म नहीं हो रही होतीं
मुझे कुछ चाहिए होता है
उसे कुछ याद नहीं आता
मैं साहस करके कुछ कह देता हूं
उसकी जबान फट पड़ती है
पहले मैं अनुमान लगा सकता था
क्या-क्या टूटने-चटखने की बारी है
मगर अब नहीं
मैं कितनी दूर चला जाऊँ
कि उसे मेरी याद आ जाए
मैं कहाँ छिप जाऊँ
कि उसे मुझे ढूँढ़ना पड़े