भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूठी बरसातें, खोये सावन / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सावन के सपने बुनता ही है मन,
जब तन तपता है, घनी रेत के पास!

रेतों की आकृतियों से होते हैं,
टूटी आशाएँ, खण्डित विश्वास,
पथ नहीं हारतीं कभी प्रतीक्षाएँ,
पथहारी तो कुछ प्यासे होते हैं,
बस, आँखों में बसकर रह जाते हैं
जलभरी हवाओं के, फुहारों के आभास!

हम अपनी कई विभाजित प्यासों को
ढोते तो हैं, पर, व्यक्त नहीं करते,
कटने को जीवन कट ही जाता है
सतही तृप्तियां परिभाषित करते,
संयम क्या है?
आधी तन की, आधी मन की पीड़ा है,
हम आचरणों में अर्थ खोजते हैं,
अन्दर की पीड़ाओं के, संयम के
साँसों में पल-पल पलती प्यासों का,
साधों का संचय होता है जीवन,
अस्ताचल पर फिर सुलगे लगते हैं,
जीवन के भूले-बिसरे अभयारण्य,
मेघा बरसे तो मेघा है, पावस है,
वरना हर बादल उड़ती भाप, धुआँ भर है!
तन-मन पीछे गिनते रह जाते हैं
कुछ रूठी बरसातें, खोये सावन!