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रूप खजाना / नवीन ठाकुर ‘संधि’
Kavita Kosh से
ओठोॅ में लाली, आँखी में काजर,
कपारोॅ में बिन्दी, जेनां चमकै बादर।
रंग श्यामल लागै रूप खजाना,
कि कारण नै आबै छै पहुना।
भेलै बेकार रूप गुण खजाना,
बान्होॅ धीरज एैतेॅ हौ दिन जमाना।
कि दगियैलोॅ छौं तोरोॅ मलमल चादर,
तोरोॅ दिल कठोर कि कोमल छौं?
है मन चंचल तोरोॅ बताय छोॅ।
तोरोॅ जवानी चढ़लोॅ छौं,
दिल वैकरै पर गड़लोॅ छौं।
बैठोॅ "संधि" आश लगाय उमड़तै सागर।
आय तालूक कुछू नै होलोॅ छै समय रोॅ पहिलेॅ,
मुरखा आरो ज्ञानी केकरोॅ-केकरोॅ कहलेॅ।
तड़पै छै तड़पाय छै सबनें भलेॅ,
नै फँसोॅ-फँसावोॅ तोयँ दलदलें।
समय जानि करीयोॅ तोहें आदर।