भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेगिस्तान में जेठ की दोपहर / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
रेगिस्तान में जेठ की दोपहर
किसी अमावस की रात से भी अधिक
भयावह, सुनसान और सम्मोहक होती है
आंतकवादी सूरज के समक्ष मौन है
आदमी, पेड़, चिड़िया, पशु
कोई प्रतिकार नहीं बस
ढूंढते हैं मुट्ठीभर छांह
आवाज के नाम पर
जीभ निकाले लगातार
हांफ रहे कुत्तों की आवाजें सुनाई देती हैं
सन्नाटा गूंजता है चारों ओर
गलती से बाहर निकले आदमी को
लू थप्पड़ मारकर बरज देती है
प्याज और राबड़ी खाकर भी
झेल नहीं पाता आदमी
छलकते पूर्ण यौवन के अल्हड़ उन्माद में स्वछंद दुपहरी
किसी भी राह चलते से खिलवाड़ करती है
धूप सूरज और लू की त्रिवेणी
करवाती है अग्नि स्नान
रेत और उसके जायों को
इस नग्न आंतक से त्रस्त
छांह भी मांगती है पनाह।