भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेडियो / देवेंद्रकुमार
Kavita Kosh से
तटस्थ
निरपेक्ष
रेडियो बज रहा था-
बिखरे थे पंख
तने फट रहे थे
सड़क चौड़ी होगी
प्रगति रथ के लिए।
तू मेरा प्यारा सजन
तुन तुन तुन
अस्पताल के बाहर
खून सूख गया,
अंदर विषाक्त ग्लूकोज
अनेक प्राण पी चुका
बैठे हैं पुल पर
डूबी झोंपड़ियों वाले
छक्का-चौका
दर्शक पचास हजार
चौराहे पर
अनावरण
आदमकद महानता का
पचासवीं बार।
डगमग टांगों पर
पेट का वहम संभाले
दो बच्चे-
‘एक पैसा मिल जाए बाबू’
आओ चलें बादलों के पार
तटस्थ
निरपेक्ष
रेडियो बज रहा था
आओ खबरें सुनें।