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रेतीला मन / रेणु मिश्रा

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जब घेरता है,
अकेलेपन का अँधेरा
तो इस घने, अपनेपन की दुनिया से
कोई टिमटिमाते आस का दीपक ले
रास्ता नहीं दिखाता
ना ही कोई युक्ति और ना मुक्ति
टिक पाती है हाथों की चलनी में
बार-बार जी में आता है
कि दुनिया का कारोबार छोड़
कहीं दूर भाग जाएँ
किसी पहाड़ की दुरूह चोटी पर
या
मन की निचली गहरी खाई में
छुप जाएँ किसी आदम काल की गुफा में
जिसमे बिच्छुओं का ज़हर
इंसानी जहर की सांद्रता से कम हो
या बहते जाएँ नदियों के बीचों बीच
जाने पहचाने माजी के किनारों से बचते हुए
बह जाएँ समंदर के अथाह लहरों पर
जो स्मृतियों के बक्से को गड्ड-मड्ड कर
बहा दे लोभित करते चिन्हों को
और छोड़ आये हम आवारा आत्माओं को
किसी सुनसान निर्जन टापू पर
उस निर्जन सुनसान टापू पर
मन खोजे फिर संवेदनाओं का नया भूगोल
रचे रंग बिरंगे संवादों की नयी दुनिया
अंतर्मन के खारे पानी के सोतों से
भर लाये ताज़े मीठे पानी की झीलें
तलाशे अनसुलझे भावों की कंदराएँ
जहाँ लिखी जाये प्रेम की कोई नयी ऋचा
जिनको सुन खिल उठे
थार की चुप्पी सा पसरा रेतीला मन
और उग आये
कैक्टस से जीवन में,
मुस्कान के गुलाबी फूल!!