भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रो रही है बाँझ धरती मेह बरसो रे / ऋषभ देव शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रो रही है बाँझ धरती , मेह बरसो रे
प्रात ऊसर, साँझ परती, मेह बरसो रे

सूर्य की सारी बही में धूपिया अक्षर
अब दुपहरी है अखरती , मेह बरसो रे

नागफनियाँ हैं सिपाही , खींच लें आँचल
लाजवंती आज डरती , मेह बरसो रे

राजधानी भी दिखाती रेत का दर्पण
हिरनिया ले प्यास मरती , मेह बरसो रे

रावणों की वाटिका में भूमिजा सीता
शीश अपने आग धरती , मेह बरसो रे