भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रो रहे हैं ख़ून के आँसू / महेंद्र नेह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रो रहे हैं
ख़ून के आँसू
जिन्होंने
इस चमन में गन्ध रोपी है

फड़फड़ाई सुबह जब
अख़बार बनकर
पाँव उनके पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उनके साँकलों में थे
सी रहे हैं फट गई चादर
जिन्होंने इस धरा को चान्दनी दी है

डगमगाई नाव जब
पतवार बनकर
देह उनकी हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उनकी हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं धूप की पोथी
जिन्होंने बरगदों को छाँह सौंपी है

छलछलाई आँख जब
त्यौहार बनकर
प्राण उनके युद्धरथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश होकर
क़दम उनके अग्निपथ पर थे
सह रहे हैं मार सत्ता की
जिन्होंने इस वतन को ज़िन्दगी दी है