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रोज आती याद / अमरकांत कुमर

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रोज आती याद तेरी तुम कहाँ प्रिये हो
साँस में खूश्बू-सी आती तुम कहाँ प्रिये हो।

मन मचलता पकड़ लूँ ख़ुश्बू के धागे को
उड़ा दूँ स्यन्दन हवा में और आगे को
बाँह में सुरधनु की परछाई करूँ बन्दी
फिसल जाऊँ बिजलियों के पकड़ तागे को
मैं क्षितिज पर खड़ा हूँ पर तुम कहाँ प्रिये हो॥ रोज़ आती...

मैं हिमों की शिला पर उत्तप्त होता हूँ
मैं शलभ की दाह से परितप्त होता हूँ
मधुमास की अँगड़ाइयाँ अंगों में बैठी हैं
नशों में ज्वालामुखी के बीज बोता हूँ
चाह चन्दन लेप दो पर तुम कहाँ प्रिये हो॥ रोज़ आती...

जब खिली फूलो की गलियाँ मैं बहक जाता
एक अतिन्द्रिय गंध से अन्तस् महक जाता
याद से तेरी नशों में रेंगती बिजली
जैसे किंशुक वन बसन्तों में दहक जाता
है देह की आयी महक पर तुम कहाँ प्रिये हो॥ रोज़ आती...

अँखमिचौनी मत करो! मेरे प्राण रो देंगे
आ भी जाओ! पल सुनहरा भान खो देंगे।
तुम धड़कती जान में ख़ुश्बू की हो पाँती
हो न कि थक-हार कर संधान खो देंगे
मै तुम्हारी राह तकता तुम कहाँ प्रिये हो। रोज़ आती...