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रोज़-रोज़ / चंद्र रेखा ढडवाल
Kavita Kosh से
उँडेल दिया अपने को
पूरा का पूरा
और जिस दिन
वह जान गया समझ भर
ज़रूरत भर भी
उसने बटोर लिया शब्द-शब्द
रख लिया सहेल कर अस्त्र-सा
उसी के विरुद्ध जो
इस्तेमाल हुआ फिर रोज़-रोज़