भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज़ डूबे हुए सूरज को उगा देती है / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज़ डूबे हुये सूरज को उगा देती है
रात किस किसको अंघेरे मे सदा देती है

वक़्त की धूप मुझे कैसी सज़ा देती है
आग हर ख़्वाब के जंगल में लगा देती है

आबशारों1 से उभरती हुर्इ शादाब2 सदा3
दिल मे ग़ालीचा-ए-ख़्वाहिश4 को बिछा देती है

तल्ख़5 सांसों के सफ़र की ही सज़ा है काफ़ी
जि़ंदगी क्यों मुझे अहसासे-ख़ला6 देती है

यूं तो जंगल में सिककती है हवा सदियों से
खुश्क शाख़ों को मगर रंग हरा देती है

कड़वे हालात के गिर्दाब7 से हस्ती मेरी
लज़्ज़ते-साहिले-तिफ़्ली8 को सदा9 देती है

तुझ से बिछुडे हुये अरसा हुआ पर जाने-कंवल
तेरी सौग़ात मुझे अब भी रूला देती है


1. जलप्रपात 2. हराभरा, सुरक्षित 3. घ्वानि,आवाज़
4. अभिलाषा-आकांक्षाकीकालीन 5. कड़वाकटु 6. रिक्तताकीअनुभूति
7. भंवर 8. बचपनकाआनन्द 9. आवाज़ ।