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रोज़नामचा / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
जो था कहां हूं अपने आकार से बाहर
गलियारे में आजाद घूमने से निष्कासित
जब्त हुआ परिचय पत्र
और मैं दोस्तों के बीच कहीं
अपनी छाया से निलंबित
यहां आवाजें मेरे वास्ते हाजिरी को
जानबूझकर अनुपस्थित जो उनके लिए मौन
सिर्फ हमारे असहाय ठिकाने गढ़ हुए साजिश के
चाय की गुमठियां
पान ठेले
यहां तक हाथ ठेले दौड़ाते लोगों के पीछे निगाहें
कोई रास्ता नहीं उन तक
जो बैठे हैं खुलेआम
रास्ता वही सुझाते हैं कि करो खलास सच को
हत्या के माकूल तरीके हैं किताबों में
निरपराध कोई भी हो धर दबोचो
खाली न रहे रोजनामचा
जो देखते नहीं सिवाय सच के
खड़े होंगे कठघरे में
और साबित नहीं कर पाएंगे
काली पट्टी में बंद आंखें देखती हैं जो
शामिल नहीं उसमें सच की हत्या