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रोज़मर्रा के मज़बूर ज़माने / शिव रावल
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रोज़ कितने मज़बूर ज़माने मिलते हैं,
ये रोज़मर्रा में रूबरू होने वाले भी होके बेगाने मिलते हैं,
मेरे सूरत-ए-हाल पर हँसने वाले ही
अक्सर मुझको रोने के बहाने मिलते हैं,
खुशियाँ बेवजह दिलासे ढूँढती रहती हैं,
और ग़म हरदम होके सयाने मिलते हैं,
यूँ तो मुझे आईने से परहेज नहीं 'शिव'
पर इसे देखते ही वह हमें क्यूँ न जाने मिलते हैं।