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रोटी और कविता / माधवी शर्मा गुलेरी
Kavita Kosh से
मुझे नहीं पता
क्या है आटे-दाल का भाव
इन दिनों
नहीं जानती
ख़त्म हो चुका है घर में
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान
रसोईघर में क़दम रखकर
राशन नहीं
सोचती हूँ सिर्फ़
कविता
आटा गूँधते-गूँधते
गुँधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा
चूल्हे पर रखते ही तवा
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क
बेलती हूँ रोटियाँ
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार
होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे
देखती हूँ यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफ़ान
आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।