भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोवणियो जुग / गौरीशंकर प्रजापत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जठै जावां वठै ई
टाबर, मिनख, बूढा
एक सूं लेय’र अस्सी तांई
रोवै आप-आपरा रोवणा
रोवै रोवणा-
बाप बेटै रा
बेटी मां रा
पोतो दादै रा
सगळा ई दुखी होयग्या
पण दुख छेकड़ किण बात रो
आ बात कोई नीं जाणै
 
नेता वोटर सूं
रोगी डक्टर सूं
जातरी मोटर सूं
सगळा रोवणा रोवता लागै
च्यारूंमेर है रोवणो ई रोवणो
इण रोवणै नैड्ड देख’र
लखावै कै जमराज
आपरो कीं कारज
हळको कर लियो है
सेल्फ सर्विस सूंपी है
अठै ई रोयलो सगळा रोवणा
जित्ता रोय सको
रोयलो रोवणा
ओ अखाड़ो अठै क्यूं
अकल माथै भाठा क्यूं....
एक डोकरो कैवै-
‘रोवणो तो आज फैसन है सा....’