रोशनी / शंकरानंद
जब कहीं अन्धेरा देखता हूँ तो वह बूढ़ा याद आता है
जो दिन ढलते दरवाज़े पर लालटेन जलाकर टाँग देता था
वह जानता था कि अन्धेरे में कुछ नहीं सूझेगा
इसीलिए यह उसकी दिनचर्या का हिस्सा था
जिससे कि सड़क पर चलने वालों को दिक़्क़त न हो
मैंने देखा कि कई बार पत्नी उसे डाँटती थी कि
घर में अन्धेरा है और सड़क पर क्यो टँगी है लालटेन
तब बूढ़ा चुप हो जाता था
वर्षों तक यही चलता रहा तब गाँव में बिजली नहीं थी
अब सब कुछ बदल गया है और लालटेन भी बन्द है
पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ जो रोशनी में जीना चाहता था
अब बिजली के तार हर गली में है
जगह -गह बल्ब लगा है पर जलता नहीं
हर गली में अन्धेरा है हर चौराहे पर सन्नाटा
अब कोई राहगीरों की परवाह नहीं करता
अपना तेल जला कर दूसरों के लिए रोशनी करना सबके वश की बात नहीं
अगर वह बूढ़ा होता तो लालटेन दरवाज़े पर अब भी टाँगता ज़रूर।