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रोशनी की तलवार / मनजीत टिवाणा / हरप्रीत कौर

जिनके घर बचपन में छिन जाते
उनसे घर दूर चले जाते हैं

न जाने वह किस-किसका
जिस्म पहनकर आता है
और हर बार
मेरा घर छीनकर
चौराहे पर खड़ा कहता है —
देख, कितनी आवारागर्द है
कभी घर ही नहीं घुसती ।

चौराहे पर खड़ी मैं
हर आम और ख़ास से
अपने घर का पता पूछती हूँ ।

कोई एक, भीड़ में से निकलकर
कहता है —
मेरे दिमाग़ में कई कमरे हैं
एक कमरे का
दूसरे कमरे में दरवाज़ा नहीं खुलता
तुम एक कमरे में रह सकती हो ?

मैंने उसकी चोर नज़र की
ओर घूरकर देखा

इतने में कोई दूसरा
आगे आकर कहता —
क्या किसी के साथ गुज़रे
कुछ ख़ूबसूरत पल
पर्याप्त नहीं होते
बाक़ी बची उम्र के वास्ते ?
मैंने उसे कनखियों से घूरकर देखा ।
 
अब तक कोई तीसरा
आगे बढ़कर कहता है —
घर तो झूठे रिश्तों पर
सुनहरी लेबल है
तुम अपने माथे की रोशनी से
उस झूठे लेबल को कैसे करोगी रोशन ?
मैं सोचने लगती हूँ ।

इतने में कोई एक चौथा उठकर
कहता है —
हर आदमी चोरी-छिपे ही सही
अपने घर से दूर भागता रहता है
फिर तुम उस सूने घर का क्या करोगी ?
मैं घबरा जाती हूँ ।
 
अब तक पाँचवाँ कोई
उठता और कहता है —
पक्षी, पवन और पवित्र सोच को
घर की सीमाओं की ज़रूरत नहीं होती ।

इतने में सेफ़ो, सिल्विया, एमिली
राबिया, सारा शगुफ़्ता और अमृता प्रीतम की
सूती हुई-सी आवाज़ें,
मुझे सुनाई देती हैं —
तुम घर की दीवारों की बात करती हो
तुम्हारे जैसी आत्माओं के लिए तो
समय की सरहदें भी
तंग पड़ जाती हैं ।

और तुम्हारी रोशनी की
तलवार
जो सच माँगती है
उसका हमला, भला, कोई
कैसे झेल सकता है ?
इसलिए तुम घर का पीछा छोड़ो
जिनके घर
बचपन में छिन जाते हैं
घर उनसे दूर
चले जाते हैं ।
 
पंजाबी से अनुवाद : हरप्रीत कौर