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रोशनी की भनक / लीलाधर मंडलोई
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नींद में अधजगा इतना कि सोया अनस्तित्व
खुद के होने की सजग चेतना के नजीक
बंद आंखों के कपाटों पर रोशनी की भनक
बीच जिसके नाचती खौफनाक छाया
यह मनुष्य की छाया से अलग
मेल खाती बचपन के भयावह दैत्य से
पत्तियों पर किन्हीं ब्राह्मण पदचापों की ध्वनि
किसी तीसरे अदेखे दरवाजे से फूटता रूदन
आसपास की दुनिया सुराखें से झांकती
कि कहीं खो जाने का निचाट अनुभव
नावाकिफ रहा जिन अपनों से
उनकी बर्राहट में अब छिपा सुख मेरा
मंशा में कि निकल पडूं खोजने उसे
हकाला गया जो कि अपना था
थाम ले जो अशुभ छायाओं का बवंडर
किसी खो गई नदी की अदृश्य पुकार
स्तनों के सूखने की व्यथा
स्मृति से लुप्त होतीं इबारतें-प्रार्थना गीत
और वो सच जागता जो लड़ने को मेरी बंद आंखों में.