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रौशनी जबकि मारों में है / विनय मिश्र
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रौशनी जबकि मारों में है
क्यों घुटन अपने हौसलों में है ।
काँटे चुभकर भी सुर्ख़रु हैं अब,
फूल तो अब भी हादिसों में है ।
क्यों मनाऊँ न क़ातिलों की ख़ैर,
यार मेरा भी क़ातिलों में है ।
रौनकें देखकर मैं चकराया,
कैसा अंधेर महक़मों में है ।
कोई मिलता नहीं सिरा उसका,
वक़्त फिर जैसे उलझनों में है ।
ज़िंदगी आँसुओं के मौसम में,
इक नदी जैसे बारिशों में है ।
मौत इतने क़रीब हो बैठी
ज़िंदगी आज फ़ासलों में है ।