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लंका काण्ड / भाग 5 / रामचंद्रिका / केशवदास

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हनुमंत पैज

भुजगप्रयात छंद

हन्यो विघ्नकारी बली बीर बामैं।
गयो शीघ्रगामी गये एक यामैं।।
चल्यो लै सबै पर्वतै कै प्रणा मैं।
न जान्यो विशल्यौषधी कौन तामैं।।77।।

द्रोणागिरि-आनयन

लसैं ओषधी चारु भो व्योमचारी।
कहैं देखि यों देव देवधिकारी।।
पुरी भौम की सी लिये शीश राजै।
महामंगलार्थी हनूमंत गाजै।।78।।
लगी शक्ति रामानुजै रामसाथी।
जड़ै ह्वै गये ज्यौं गिरै हेम हाथी।।
तिन्हैं ज्याइबे को सुनौ प्रेमपाली।
चल्यो ज्वालमालीहिं लै कीर्तिमाली।।79।।
किधौं प्रातही काल जी में विचारîो।।
किघौं जात ज्वालामुखी जोर लीन्हें।
महामृत्यु जामैं मिटै होम कीन्हैं।।80।।
बिना पत्र है यत्र पालाश फूले।
रमैं कोकिलाली भ्रमै भौंर भूले।।
सदानंद रामैं महानंद को लै।
हनूमंत आये बसंतै मनो लै।।81।।

मोटनक छंद

ठाढ़े भये लक्ष्मण मूरि छिये।
दूनी शुभ शोभ शरीर लिये।।
कोदंड लिए यह बात ररै।
लंकेश न जीवत जाइ घरै।।82।।
श्रीराम तहीं उर लाइ लियो।
सूँघ्यो शिर आशिष कोटि दियो।।
कोलाहल यूथप यूथ कियो।
लंका हलली दसकंठ हियो।।83।।

रावण प्रति कुंभकर्ण का उपदेश

मनोरमा छंद

कुंभकर्ण- सुनिए कुलभूषण देव विदूषन।
बहु आजि विराजिन (समर, में शोभा पाने वाले शूर वीर लोग) के तुम पूषन।
भवभूप जे चारि पदारथ साधत।
तिनकौं कबहूँ नहिं बाधक बाधत।।84।।

पंकजवाटिका छंद

धर्म करत अति अर्थ बढ़ावत।
संतति हित रति कोबिंद गावत।।
संतति उपजत ही निसी बासर।
साधत तन मन मुक्ति महीधर (राजा)।।85।।
(दोहा) राजा अरु युवराज जग, मोहित मंत्री मित्र।
कामी कुटिल न सेइए, कृपण कृतघ्न अमित्र।।86।।

घनाक्षरी

कामी बामी झूँठ क्रोधी कोढ़ी कुलद्वेषी खलु।
कातर कृतघ्नी मित्रदोशी द्विजद्रोहिए।
कुपुरुष किंपुरुष कालही कलही क्रूर
कुटिल कुमंत्री कुलहीन कैसौ ढोहिए।।
पापी लोभी शठ अंध बावरो बधिर गूँगो
बौनो अविवेकी हठी छली निरमोहिए।
सूम सर्वभच्छी दववादी जो कुबादी जड़।
अपयसी ऐसो भूमि भूपति न सोहिए।।87।।

निशिपालिका छंद

बानर न जानु सुर जानु सुभगाथ हैं।
मानुष न जानु रघुनाथ जगनाथ हैं।।
जानकिहिं देहु, करि नेहु कुल देह सों।
आनु रन साज पुनि गाजु हँसि मेह सो।।88।।

रावण- (दोहा) कुंभकरन करि युद्ध कै सोई रहै घर जाइ।
वेगि बिभीषण ज्यौं मिल्यो, गहौ शत्रु के पाइ।।89।।

कुंभकर्ण युद्ध

चामर छंद

कुंभकर्ण रावनै प्रदच्छिनाहि दै चल्यो।
हाइ हाइ ह्वै रह्यो अकास आसु ही हल्यो।।
मध्य छुद्र घंटिका किरीट सीस सोभनो।
लच्छ पच्छ सो कलिंद्र इंद्र पै चढ्यौ मनो।।90।।

नाराच छंद

उड़ै दिसा दिसा कपास कोरि कोरि स्वासहीं।
चपैं चपेट पेट बाहु जानु जंघ सों तहीं।।
लिए हैं और ऐंचि वीर बाहु बातहीं।
भषेते अंत रच्छ रिच्छ लच्छ लच्छ जातहीं।।91।।

भुजंगप्रयात छंद

कुंभकर्ण- न हों ताडुका, हों सुबाहै न मानौं।
न हों शभु कोदंड, साँची बखानौं।।
न हौं ताल, बाली, खरे जाहि मारौ।
न हौं दूषणो, सिंधु, सूधै निहारौ।।92।।
सुरी आसुरी सुंदरी भोग कर्णे।
महाकाल को काल हौं कुंभकर्णै।।
सुनौ राम संग्राम कों तोहिं बोलौं।
बढ्यो गर्व लंकाहि आये, सो खोलौं।।93।।
उठ्यो केसरी केसरी जोर छायो।
बली बालि को पूत लै नील धायो।।
हनूमंत सुग्रीव सोभैं सभागे।
डसैं डाँस से अंग मातंग लागै।।94।।
दसग्रीव को बंधु सुग्रीव पायो।
चल्यो लंक मैं लै भले अंक लायो।।
हनूमंतलातैं हत्यो देह भूल्यो।
छुट्यो कर्ण नाशाहि लै इंद्र फूल्यो।।95।।