भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लखौरी ईंटों से झांकते हुए / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
मेरे बचपन की धूप में
ढह गए बुर्ज की
भुरभुराती लखौरी ईंटों से झाँकते
मेरे दादा हैं
परछाइयों में ढूँढते
उँघते हुए बैठे
पिता की शिकस्ता आवाज़
तैर आती है मुझ तक
लौ के उदास सन्नाटे में
फ़ाक़ों से भरे दिन हैं
घर-कुनबे के बुज़ुर्ग और सुबकते हुए बच्चे
बहू-बेटियाँ,माँ और दादी की सूनी आँखों में
लहकते हुए पुरखों के सपने हैं
तुम्हें कुछ पता है
ग़ुरबत में यह भी ग़रीबी से लड़ने की अदा है