भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लगती आज पतंग पिया / अर्चना पंडा
Kavita Kosh से
डोर हो तुम मैं तुमसे जुड़कर लगती आज पतंग पिया
हिचकोले खाते देखूँ आकाश तुम्हारे संग पिया
तुम बिन प्राणों के बिन होकर धरती से तकती अम्बर
संग तुम्हारा पाते ही खिल जाते मेरे अंग पिया
ऊँचा खूब उड़ाते मुझको गिरने पर तुम ही थामो
यों ही साथ रहे तो कोई हारे कभी ना जंग पिया
होश नहीं रहता है मुझको साथ तुम्हारे जब होती
मैं पगली-दीवानी डोलूँ जैसे पी हो भंग पिया
तेरा सँग जो छूटा तो मैं जाने कहाँ खो जाऊँगी
एक जनम क्या जनम-जनम तक रहना मेरे संग पिया