भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लगन मत बुझाओ / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
शूल बनकर नहीं याद आओ।
यों कि चिंतन लगन मत बुझाओ।
गर्व तुम पर रहूँ मान करती,
मत किसी के नयन से गिराओ।
धीर गंभीर लेखन प्रखर हो,
दर्प मन में नहीं तुच्छ लाओ
लेखनी हो तुम्हीं मान मेरी,
संग चलती रहो पथ दिखाओ।
छेड़ संग्राम अरि चैन दे मत,
वार अपनी नहीं भूल जाओ।
नित महकती रहो फूल बन कर
रूठती वादियों को मनाओ।
दर्द कशमीर का है मिटाना,
ज़ाफ़रानी महक बन सजाओ।