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लगे कँटीली बोली / प्रेमलता त्रिपाठी
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सन-सन, सन-सन चली बयारें, लगे कँटीली बोली।
चली फगुनहट झूमे जैसे, मस्तानों की टोली॥
खेतों में गदराई फसलें, हरित पीत चहुँ ऐसे,
रंग रँगीली चूनर वाली, मनहर लगती भोली।
रार मचाते भूले भटके, मत भेदों के डेरे,
धोखा बनकर खडे़ खेत में, ऊपर पहने खोली।
कहीं सियासी दंगे भड़के, गाँव शहर चोराहे,
आया लेकर रंगा सियार, फिर वोटों की झोली।
विकल हृदय हो छंद साधना, कर न सके अनदेखा,
मर्यादा संवादों की अब, केवल हँसी ठिठोली।
मिटा आपसी शीत द्वंद को, प्रीत रंग में डूबें,
जाग उठे अब सुप्त प्रेम तब, सुखद मनेगी होली।