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लटके हुए अधर में जब दिन / नईम
Kavita Kosh से
लटके हुए अधर में जब दिन-
सुधियाँ क्या लेंगी धरती की,
ख़बरें क्या देंगे आकाश की?
नहीं हुआ सूरज हरकारा या फिर हॉकर,
कोई ख़त अख़बर नहीं देता अब लॉकर;
डूबे हुए ज़हर में जब दिन-
ऊष्मा क्या देंगे धरती को
किरनें क्या देंगे प्रकाश की?
अनुभूते को रचा और साहित्य किया था,
गया अकारथ, जो अर्जित स्वायत्त किया था;
भटकी हुई डगर से अब दिन-
चीरेंगे छाती धरती की,
फिजाँ विनाशेंगे अकाश की।
भूगोलों से परे विषय हैं ये खगोल के,
घर की खेती नहीं, पड़े हैं हमें मोल के।
बजते मृत्यु गजर से ये दिन-
क्या होंगी शामें धरती की,
सुबहें क्या देंगे उजस की?
लटके हुए अधर में जब दिन-
सुधियाँ क्या लेंगे धरती की,
खबरें क्या देंगे अकाश की।