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लड़का जाग रहा है / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
Kavita Kosh से
धीरे-धीरे लड़का जाग रहा है
धीरे-धीरे लड़का देख रहा है
लड़का सूरज जैसा है
लाल-लाल हँसते अंगारों जैसा
तिरछी आँखों से देख रहा है
कड़वा मुँह लेकर दाँतों में ओठ दबाए है
लड़का जाग रहा है
अकेला-अकेला घूम रहा है
इस शहर की एक गली मे है
गुस्से से भरा हुआ
अपने ही हाथों की नीली नसों मे सिमट रहा है
अपने पैरों को ठोक रहा है
टूट रहा है चटक रहा है
खाली हाथों को कमरे की दीवारों पर मार रहा है
यह लड़का तड़प रहा है
यह भारत का लड़का है