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लड़कियां (3) / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
वे सहमी-सी
दोहरे दमन से गुजरते
एडजस्ट नहीं कर पातीं
ट्रेडिशनल का तमगा टांग कर
सहेलियां धर देती हैं
हाशिये पर
संवेदनाओं के उफान
खोज नहीं पाते मार्ग
पथरीली आस्थाओं के पार।
उंगली थामे अपने बच्चों की
खरीदारी करती
चाहते हुए भी नजर चार नहीं कर पाती
अपने पहले-पहले सपनों के राजकुमार से।