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लड़की का सफ़र / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
जैसे पृथ्वी घूर्णन गति से
अन्तरिक्ष में सूर्य के चारों ओर घूमती है
उसने अपनी पतली गौरवर्णी उँगली में
चाबी छल्ले को घुमाया
माथे पर झलक पड़ी नैराश्य की थकन को
उसने आत्मविश्वास के रूमाल से पोंछा
उसने शोर को जाने ही नहीं दिया कानों में
और सपनों के संसार को आँखों में उतारकर
खुला छोड़ दिया इच्छाओं के लिए
उमँगों के क़दमों से सरपट चलकर
समय की सड़क को नापते हुए
वह कॉलेज की लड़की कुचलती जा रही है
भय, भ्रम और आशँकाओं को
अपने पैरो के नीचे निःसँकोच
इस तरह वह सौन्दर्य की इन्द्रधनुषी पाती से
आमन्त्रित करती जाती है
खुशियों की बदलियों को
जीवन की धरती पर ।