भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लड़खड़ा कर सँभल रही होगी / बल्ली सिंह चीमा
Kavita Kosh से
लड़खड़ा कर सँभल रही होगी ।
बात रुक-रुक के चल रही होगी ।
तेज़ होगा बहाव दरिया का,
बर्फ़ हर पल पिघल रही होगी ।
क्यों अँधेरा घना हुआ फिर से,
रात करवट बदल रही होगी ।
घर तो जल कर हैं कब के राख हुए,
आग सीनों में जल रही होगी ।
गाँव-बस्ती के ठण्डे चूल्हों में,
इक बग़ावत भी पल रही होगी ।