भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लपटों में मनुष्यता / ओमप्रकाश सारस्वत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कैसी प्रथा है
जो जीवन को
जलाती है
और मौत को
जियाती है!!

एक ही रूपकंवर
देवराला को
चिता कर गई
देखते-ही-देखते
मनुष्यता को
लपटों में धर गई

सारी जनता खड़ी-खड़ी
तमाशा देखती रही
उसके सतीपन से
अपने हाथ सेकती रही

मेरे शंकर !
मानव कब छोड़ेगा
जलती-देहों की
होली देखना
और विवश सतियों की लपटों-से
अपने हाथ सेकना