लफ्ज़ / नवीन रांगियाल
लफ्ज़ों की जद मामूली नहीं होती
धुन घेरे रखती है रातभर
कि उतरता नहीं ख़ुमार दिनों तक
बेसाख़्ता गुनगुनाते रहते हैं हम
लय में चक्कर काटते हैं पैर हमारे हर शाम
तिस पर लफ्ज़ किसी गहरी रात में
किसी आत्मा की कोख़ से छिटककर निकले हो
तो वे हमेशा के लिए आंखों में उतर आते हैं
ये लफ्ज़ कोई गुमनाम शायर लिखे
या कोई नाकामयाब दीवाना
तो आंखों के भी और जिगर के भी पार होते हैं
फबता भी हरेक पर है लफ्ज़ों रंग
हर मौसम और जमाने में मुफ़ीफ और शरीक हैं लफ्ज़
जो इश्क में हैं उनके लिए भी,
जो खाली है उनके लिए भी है लफ्ज़
जो ख़्याल में हैं किसी के उनकी भी बेख़ुदी है,
जो बेख्याल हैं वो भी गोता खाते हैं लफ़्ज़ों में
अमीर और मुफ़लिस भी इन्हीं के चक्करों में हैं
क्या करें इन लफ़्ज़ों का,
कि जो लिखे तो एक बार गए
पार जिगर के बार- बार होते हैं,
कि बेख़ुदी में
या किसी के हमख्याल में
सिरफ गाएं और गुनगुनाएं इन लफ़्ज़ों को
तो एक हूक उठे
और फिर एक करार आए।