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लम्स-ए-ज़र / परवीन शाकिर

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लम्स-ए-ज़र<ref>धन का स्पर्श</ref>

कीमियागर<ref>धातु से सोना बनाने वाला</ref> ये कहते हैं
बा’ज़ शराबें अपने वस्फ़<ref>गुण</ref> में इतनी अजीब होती हैं
के जब तक
जाम-ए-सिफ़ाली<ref>मिट्टी के बने जाम</ref> में रखी जाएँ
तो उनका नश्शा
अपने ख़ुमार तलक
मयख़्वारों<ref>शराब पीने वालों</ref> के हक़ में अमृत रहता है
और जैसे ही सोने के प्यालों में उंड़ेली जाएँ
तो अमृत ज़हर-ए-हलाहिल<ref>बहुत तेज़ ज़हर</ref> बन जाता है
आज अपने महबूब<ref>प्रिय</ref> मगर मरहूम<ref>दिवंगत</ref> सुख़नवर<ref>कवि</ref> को मैंने
जब कुर्सी-ए-आला पर बैठे
और तीसर्ते दर्जे के मोहमल<ref>अर्थहीन</ref> अश‍आर<ref>शेर का बहुवचन</ref> सुनाते देखा तो
मुझको ये मालूम हुआ
ऐसी अजीब शराबों में
एक शराब-ए-सुख़न भी है


शब्दार्थ
<references/>