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लाख के दानों का घर: जयपुर / कुमार कृष्ण

लाख के दानों, कपास के फूलों पर जिन्दा है
जयपुर
लाल पत्थरों के घर सोचते हैं हमेशा
लाल आग के बारे में।

हर वक़्त मौजूद है शहर में
राजा की किलेबन्दी

हम जितनी देर रहते हैं इस जगह
राजा के ठाठ के बारे में सोचते हैं
नाहरगढ़ के किले पर चढ़कर
छोटे-से गाँव में बदल जाता है जयपुर
वहाँ से नहीं नज़र आते लोग
पकी हुई ईंट की तरह लगती है ज़मीन
बाँहों को चूड़ियाँ
पैरों को चमड़े की चप्पल पहनाती
राजा जयपुर की ज़मीन

सांगानेरी चादर और कादर बख्श की रजाई में
जब भी आता है कोई सपना
मैं खुद को पाता हूँ राजा की गिरिफ़्त में
प्रहरियों से घिरा सड़क पर।

हवा महल के झरोखों से कोई नहीं देखता
कादर बख्श की आँखों का सपना
कादर बख्श हमेशा देखता है
हवा महल के झरोखे।

होने लगा है जौहरी बाज़ार में
पतंग और सुपारी का व्यापार
नाच रहे हैं लाल दीवारों पर बच्चे
किले से ऊँची पतंग उड़ने पर
जलेबी चौक के दरवाजे पर
गुड़- चना बेचते आदमी की आँखों में
जिन्दा है निर्धनता की पुरानी वर्णमाला
दस रुपये के टिकट से
जल्दी देखना चाहते हैं लोग-
राजा का सिंहासन
राजा का बिस्तर
राजा के कपड़े
राजा के शस्त्र।

नहीं करती किसी मौसम का इन्तजार
कादर बख्श की सुई
कपास के फूलों को सिलते हुए दिन-रात
वह हो गई है पहले से पैनी
पहले से पुख्ता।

आमेर की पगडण्डियों पर कोई नहीं गाता
बिहारी के दोहे
लाख की पीड़ा की ग़ज़ल है जयपुर।