भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लाख रोकीं निगाह चल जाता / मनोज भावुक
Kavita Kosh से
KKGlobal}}
लाख रोकीं निगाह चल जाता
का करीं मन मचल-मचल जाता
राह में बिछलहर बा, काई बा
गोड़ रह-रह फिसल-फिसल जाता
रूप के आँच मन के लागत हीं
साँस लहकत बा, तन पिघल जाता
के तरे गीत गाईं जिनिगी के
हर घड़ी लय बदल-बदल जाता