भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लागै छै पानी पड़तै / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
बड़ी गुमस छै, हवा बन्द छै,
लागै छै पानी पड़तै।
किसना विसना बात करलकै
सानी दै के बैल बान्हलकै,
मौसम के सब रूख पहिचानी
काम करे की यहेॅ द्वन्द्व छै
लागै छै पानी पड़तै।
बिचड़ोॅ भरी-भरी बित्तोॅ के
गुमसी झुलसी जित्तो के के,
जुआ विधाता संग खेलै में
जीत के मौका बचै चंद छै,
लागै छै पानी पड़तै।
सावन-भादो के ते गरमी
की कहियौं होतै बेशरमी,
जान प्राण ते छुटलोॅ जाय
लेकिन सबके यहेॅ पसंद छै
लागै छै पानी पड़तै।