भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाजऽ नै लागै छै / खुशीलाल मंजर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब गत पूरी गेलऽ तोहरै घरऽ में
लाजो नै लागै छौं कोय घरऽ में
की हलगल करीकेॅ पार लागै छऽ
जरलऽ देहऽ केॅ की जरा छऽ
सभ्भै लं हाँकै छऽ खालिये डींग
हेनांकेॅ जैतौं केनांकेॅ दिन
की घुरफुर करै छऽ खालिये एँगना में
सब गत पूरी गेलऽ तोहरै घरऽ में

हाथी पर चढ़ी केॅ नैं करऽ बराबरी
केनांकेॅ चलतौं है रं अटेमरी
जेनांकऽ नांचै छै लंगटा हजार
उठतेॅ-बैठतेॅ करै छऽ कचार
मऽन करेॅ मरी जाँव भरले जवानी में
सब गत पूरी गेलऽ तोहरै घरऽ में

बातऽ बातऽ में की सान झाड़े छऽ
बाप दादा उटकीकेॅ ताखा पर राखै छऽ
हरदम उड़ाय छऽ हमरे उलाफऽ
सुसुर मुसुर लागै छऽ बच्चा रं लाफऽ
खाली बिस उगलै छऽ बातऽ बातऽ में
सब गत पूरी गेलऽ तोहै घरऽ में
लाजो नै लागै छौं कोय घर में