लालगढ़ / अनुज लुगुन
ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई ईंट फेंके
और आप चुप रहें
ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई आपके जमीर को चुनौती दे
और आप कुछ न कहें
ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई दख़लअंदाज़ी करे
और आप उसकी आरती उतारें
ऐसा तो नहीं है, साहब !
धुआँ उठे और आग न रहे
ऐसा तो नहीं है
है न, साहब !
कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो वातानुकूलित कमरे में
रहते हुए आप महसूसते नहीं
कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो रोबड़ा सोरेन
पिछले कई सालों से
नाम बदल कर फिरता है
कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो आदिम जनों की
आदिम वृत्ति को जगाता है
कुछ तो है
कुछ तो है ज़रूर, साहब !
आप ही के गिरेबान में
वरना कोई भी ’गढ़’
यूँ ही ’लाल’
नहीं होता
और आप हैं कि
बड़ी बेशर्मी से कह देते हैं कि
बदअमनी के जिम्मेवार
रोबड़ा सोरेन को ज़िंदा या मुर्दा
गिरफ़्तार किया जाए ।