लीला सहचरी / वीरेन्द्र कुमार जैन
इस जामुन के बाग़ की
बादली निर्जनता में
क्या तुम कभी खेलने नहीं आओगी
ओ मेरी बाली प्रिया!
यहाँ, तुम्हारी कभी न होने वाली लीला
चंचल धूप-छाँवों में
अनंग आकृतियाँ धरकर
विचर रही हैं...
क्या तुम, सचमुच कभी नहीं आओगी
मेरे वन-विहार के
इन एकान्त-प्रदेशों में...?
इस काली माटी के चप्पे-चप्पे में
तुम्हारे यहाँ कभी न आनेवाले
चरणों की पगचाप
मुद्रित होकर रह गई है...!
अपराह्न की उदास हवा के
प्रवासी झकोरे में
अचानक इस जम्बू-वृक्ष का
एक सूखा पत्ता
खनक कर टपक पड़ता है :
मैं चौकन्ना होकर
ताक उठता हूँ चहुँ ओर...
कहाँ से सुनाई पड़ गई है
यह तुम्हारी चूड़ी की झनक...!
इस जम्बू-वन के
काले-काले रस-सम्भार-विनत
जामुन-झुमकों में
तुम्हारी साँवली कपोल-पाली
उभर-उभर आई है,
फल-भार से झुक आई
इस डाल के ये गोल-गोल जम्बू
अनचाहे ही मेरे गाल से
रभस कर गए हैं...!
तुम्हारी सुगोल साँवली चिबुक
मेरे ओठों को
परस-रस से उर्मिल कर गई है!...
पर हाय, तुम कहीं नहीं हो
तुम कहीं नहीं हो
'...कहीं और...कहीं और...कहीं और...'
की ध्वन्यातीत कातर पुकार से
इस वन-खंड की
अनहद निस्तब्धता विकल हो उठी है...!
ओ मेरी जम्बू-प्रिया,
ओ मेरी आदिम कृष्णा
क्या तुम कभी नहीं विचरोगी
इस जम्बू-वन में मेरे साथ...?
उन दूर-दूर के पर्वतों की
वे दिग्वलयित चूड़ाएँ
तुम्हारी कलाइयों में
नीलम-चूड़ियाँ बन जाने को
तरस उठी हैं :
मेरे गीतों की चराचर-जयनि
तान की सान
पर तराशी गई हैं
इन चूड़ाओं की
ये आकाश-वाहिनी चूड़ियाँ...!
तुम्हारे अभाव की निःशब्द गहन रिक्तता में
बिछुड़न-देश के नील सर्प बन कर
लहरा उठी हैं ये चूड़ियाँ
इन पर्वत-ढालों पर...!
और तुम्हारी यहाँ कभी न आनेवाली कलाइयाँ
इस आदिम शून्य में
आकार लेती-सी,
इन सर्पों को अपनी छाती की
रसाल-छाया में खिलाती-सी
मुझे चहुँ ओर से आवरित किए ले रही हैं
इन भुजंगम पर्वतों की
महाकाल छाया में...
तुम्हारी यहाँ कभी न आनेवाली
ये कलाइयाँ...
रचनाकाल : 21 नवम्बर 1963, अमराई पार के वन-प्रदेश में