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लुक्खी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
नूनू, चलें बाग़ बगीचा देखें
लुक्खी केॅ दौड़तें-फिरतें देखें।
को रंग देखें ई फूदकै छै
गाछ-गाछ पर केनां थिरकै छै,
आवाज सुनी गोड़ोॅ के हमरोॅ
केनां देखियै ऊ थमकै छै।
कŸाोॅ थमकी गोड़ोॅ के राखें
देखी लैतौं तोरा ओकरा आँखें
नूनू, चलें बाग-बगीचा देखें,
लुक्खी केॅ दौड़तें-फिरतें देखें।
लुक्खी डाड़ोॅ केॅ लचकावै छै
ओकरा मीट्ठोॅ फोॅल सुहावै छै,
थिरोॅ से कखनूं रहबोॅ मुश्किल
गाछोॅ पर जहाँ-तहाँ बौआबै छै।
मोहक ख़ूब बनावै ओकरा
भगवान राम रोॅ औंगरी रेखें,
नूनू चलें बाग़ बगीचा देखें।
डार-डार इतराबै छै लुक्खी
फुरती ख़ूब दिखावै लुक्खी,
अŸाा-पŸाा सब कुछ कुतरै
चीं-चीं करि चिचियावै लुक्खी।
हंसी-खुशी चंचलता के गुण
नूनू तोंय रे ओकरा सें सीखें,
नूनू चलें बाग़ बगीचा देखें।