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लेखपाल / मानबहादुर सिंह

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शक्ति की कुल्हाड़ी से — ख़ुराफ़ातों की कँटबाँसी काट
साफ़ कर दो सारी ज़मीन...
तलवार को कुल्हाड़ी बनाने की कोशिश
आँख है जो ज़िन्दगी को राह देती है।
सिर्फ़ ‘लुहा’ ‘लुहा’ से भव बाधा नहीं भगेगी, भाई !

तुम्हारे ही पड़ोस में रात भर
बिलखती सुमिरन की पतोहू कितना झख मारती रही
सुबह तक — लेकिन पेड़ से गिरे उसके आदमी की
टीस जो उस बेचारी के अन्धेरे में
पीली आँखें जैसी कौंध रही थीं
तुम्हारे भीतर इतनी भी रोशनी न जगा सकी
उसे उठा अस्पताल पहुँचा देते
अपनी सरकार के पास — जिसके अहलकार तुम हो ।

दो घड़ी दिन चढ़ते-लाख देवी देवता की
मनौती के बावजूद
कुन्दा जैसी देह अररा के जीवन से टूट
जलके राख हो गई ।
उसी राख से तुमने अपने हरे दिन उगाए — लेखपाल !
नहीं, समझी थी सीधी-सी बात
‘हूँह’ कहके टाल दिया था मुझे उस दिन
डायरी में जाने क्या लिखने के बाद
और उस क़लम की बात करने लगे थे
जिससे नक़ल टीप तुम हाई स्कूल पास हुए
लेखपाल होने के बाद
वही ऐसा कमासुत हाथ बनी
कि साल भर में घर भर दिया तुमने

कहते हो बड़ी भाग्यवान है तुम्हारी क़लम
पर क़लम से पूछो
जिसके फ़रेब में फँसे लोग
कोर्ट-कचहरी थाना-पुलिस तक रपटे जाते
स्याह हुए पागल कुत्ते जैसा
झाग उगल रहे हैं ।
क़लम की बन्दूक़ से रुपए का शिकार करते हुए
जिनका कलेजा चलनी कर दिया है
झर गए उनके सुकून के क्षण
छूट गई उनकी भूसी

आज जिस मुक़ाम पर उनको लिए पहुँचे हो
वहाँ कोई किसी के ख़िलाफ़ मुख़बिर है या गवाह
आदमी-आदमी से जोड़े कैसा रिश्ता
जब सम्बन्धों के बीच फेंके तुम्हारे काँपे में
उलझा अपने को छुड़ाने में ही तबाह है।
आमने-सामने खड़े हो जब बात करने को
सोचते हैं वे झाँकने लगता है ज़मीन का कोई टुकड़ा
जिसमें उनकी आत्मीयता गाड़ दी है तुमने !
तुमने ही लोगों की छाती से
चुराई है उनकी मुहब्बत —
“देश का आदमी देश चुराए
घी अड़ाए पहिती में जाए”
हँसते हुए कहते हो...

अपने घर की कुण्डी भीतर से खोल
ख़ुद ही चोर घुसाए
हाईस्कूल क़लम नक़ब लगाए
एम०ए० घुस सारा धन विलायत-पलट को दे आए
बड़ा अनुशासित सिलसिला है, जनाब !
सावधान की मुद्रा में राष्ट्रगान गाता मुल्क
पागल कुत्तों जैसा झोझिया रहा है !
आख़िर किसी भी लड़ाई को लुहकारता
रसोई का वह छूँछा कनस्तर नहीं है क्या
जिसका एक चुटकी आटा बना
एक चुटकी अदालत
कुछ पण्डित के अँगोछे में
राजा रानी बने नौटंकियों के
बाक़ी काले चेहरे सफ़ेद करने में चुक गया ।

सुमिरन की पतोहू तुमसे कहे थी न —
“पिछवाड़े की कोठ मेरे नाम कर दो, लेखपाल बाबू !
आदमी तो लकड़ी काटते मर गया
मेरी उमर कटने में उसके हाथ रोपी यह कोठ
शायद अन्धे की लाठी बने
आगे सब अन्हियार ही अन्हियार तो है !”
पर तुमने सौ रुपए ले जिस दिन
भरोसे यादव के नाम लिख दिया था उसे
सारा दिन, सारी रात आँचर में सुनक-सुनक
अपना अन्हियार रोती रही थी वह
लेकिन अपनी क़लम की तलवार भाँजते हुए
इतना भी नहीं देखा —
कि किसी का सिर उतर रहा या बढ़ा हुआ बाल ?
सैंतालिस की लगन में उसकी शादी हुई थी
और टैगौर उसके पहले ही
राष्ट्रगान लिख चुके थे
यह सोच कि क़लम लाठी है
और अब आज़ाद है वह लेखपाल के हाथ में
चाहे जिसका सिर फोड़े !

पर मैं तो सोचता हूँ
इस क़लम के चालाक पैंतरे में लिखने की कोई भी अदा
नहीं काट पाएगी क़लम लगाई
कँटबाँसी की झाल ।
बहुत कुछ कर रही है क़लम
चाहे भजन लिखे या ख़सरा-खतौनी
वह डालेगी फाँस
तुम्हारी क़लम की कही करामात
उस रात सुमिरन की पतोहू का विलाप
सारे गाँव की नींद में
झाँखर की तरह रक्खा
सपनों के पाँवों को लहूलुहान करता रहा —
कैलेण्डर में देवी-देवता की मूरतें
दीवारों पर हिलती रही
नीचे चान्दनी ज़र्दे का इश्तहार
पूँछ ऐंठे एक आदमी करता रहा
पेड़ से गिरने वाला वह
पान में कभी खाया है उसे ?
तुम तो बाबा छाप ज़ाफ़रानी
कलकत्ता से मँगा खाते हो —
तुम तो बहुत लिखते हो मगर राष्ट्रगान की
चन्द पँक्तियाँ तहसील पहुँच
एकदम भूल जाते हो ।

तुम राष्ट्रीय सरकार के पहले अधिकारी हो
कैसी थी तुम्हारी क़लम की कुल्हाड़ी
कि भरोसे यादव सुमिरन की पतोहू के
मरे आदमी की बाँहें काट ले गया ?
राष्ट्रगान के कवि की क़लम
क्या तुम्हारी क़लम को नहीं जानती ?
राष्ट्रगान को भजन बना
वह नहीं बचा पाएगी लोगों में
राष्ट्र का जीवन
क्योंकि लोगों की ज़िन्दगी
नहीं बाँधी जा सकती उजले शब्दों के क़फ़न में !

तुम्हारे बस्ते की क़ब्र से
निकल आएगी एक न एक दिन
आदमी की ज़मीन
आकाश-सा अपना नया जन्म लेकर ।
भजन गा भवबाधा पार जाने की भक्ति
कनफुँकवा शक्ति जीते देश का
सुमिरन की पतोहू से नाजायज़ वास्ता है ।
अब तो हर भजन
कक्षा में विद्यार्थियों के आगे जैसी
व्याख्या माँगती है
नहीं तो, किसी भी जनगण का अधिनायक
लेखपालों के जाल में
खींच ले जाएगा आदमी का हाथ
और उसमें उसी की उगाई लाठियाँ थमा
फुड़ा देगा उसी का सिर !

लेखपाल भाई !
कुछ न लिखो ऐसा कि सभी हाथ
उठ जाएँ तुम्हारे ख़िलाफ़
एक दिन निश्चित तोड़ दी जाएगी
तुम्हारी खतौनी की दीवार
और देख लेंगे लोग बिना मेड़ों का समतल मैदान
जिस मुक़ाम पर छटपटा रहे हमारे पाँव
देख नहीं पा रहे
एक दूसरे को भरी आँख भर आँख ।

उस दिन मैंने कहा था भरोसे यादव से —
“भैया, आदमी हो — आदमी के ख़िलाफ़
ठीक नहीं ऐसी बात
वही लेखपाल किसी दिन तुम्हारा हक़
लिख आएगा उसे जो देगा एक हज़ार
ईमान से बड़ा जब कर दोगे रुपया
किसकी लगाओगे गुहार ?”

आदमियों के चौतरफ़ा स्वर्ण-रेखाओं का लेखपाल
ज़मीन के ऊपर बाँट दिया आदमी को
चमार और यादव में ।
तुमने भले न गाया हो राष्ट्रगान
पर ज़रूर सुना होगा सुमिरन की पतोहू का विलाप
उसमें कौंधने वाली पीली आँखें
जो बन बैठी हैं सवेरा लाने वाली सरकार
लेखपाल की क़लम की स्याही पीये
आन्हर हो गई है ।

जो बाँस काट लकड़ी तोड़ने की लग्गी बनाया
उसे उस आदमी ने लगाया था
जो लकड़ी काटने चढ़ा
पेड़ से गिर प्राण गँवाया था ।
एक बात और जानो —
हमारे घर में घुसा हाईस्कूल पास
विलायत वालों के लिए कुण्डी खोल रहा है
उसे युद्ध खेलने के लिए गोली-गोला चाहिए
शान-शौकत के लिए विदेशी शृंगार
और फिर तुम्हारा धन ही नहीं
तुमसे तुम्हारा साथी भी हटका रहा है, यार !”

“दो टके के लालच में लाख टके की समझ
गँवा देने की आदत
ग़ज़ब है, लेखपाल भाई !
तुम भी इसी राह के राही
मत क़लम करो अपने पाँव ।
एक दिन सुमिरन की पतोहू ने
अपने जीवन की एक बात बताई थी —
उसके ससुर सुमिरन करेगा जीवित थे तब
गौने में दस कोस पैदल चल आई थी वह
उसका आदमी नौटंकी में राजा बनता था
राजा के पार्ट बिल्कुल ताज़े याद थे उसे
‘रानी’ कह पहली ही रात जब बुलाया उसे
मुँह मोड़ सिर झुका उसने इतना कहा था —
“मैं अपना हाथ पाँव लिए
तुम्हारे घर इसलिए नहीं आई
कि अपनी नौटंकी नचवाओ मुझसे
जो हाथ पेट के लिए
दूसरे का पाँव धोता है
वह राजा की तक़दीर नहीं रखता ।”

तुम अब भी नहीं समझे, लेखपाल साहब !
अपनी नौटंकी का नगाड़ा बजा
लोगों की नींद नाहक़ हराम कर रहे हो
तुम लोगों के पास ऐसी मेहरि नहीं
न सही पैदल मोटर-गाड़ी से आई हो
जो समझा दे —
कि घर के लोगों के आगे मूँछें नहीं ऐंठी जातीं
मूँछें ऐंठते वक़्त चेहरा भी देखे
उनको हरा रखने भर की हंसी भी है ?
नहीं तो, ठहाका मारने वाले
इन मूँछों को उखाड़ मोज़ा बनवा लेंगे ।
मुरदा सूरतों में चिथड़ी हालत पहने
नौटंकी की बादशाही क्यों बघारते हो भाई ?
आख़िर सच्चाइयों के पेड़ पर चढ़
अपनी ज़रूरतें तोड़ते हुए
एक दिन गिर के मर जाओगे
और तुम्हारी विधवा साधें आधी रात के
सन्नाटे में बिलखती रह जाएँगी
कोई नहीं सुनेगा उनकी गुहार ।

गुहार सुनें, इस लायक़ लिखो कोई अनुशासन
जो आदमी को आज़ाद करें
नहीं तो, कोई भी राष्ट्रगान
लेखपाल की मुद्रा में सारी धरती बाँध
आदमी को बेदख़ल कर देगा ।
ऐसी ही रहा तो, लेखपाल जी !
क्या तहसीलदार तुम्हें नहीं खाएगा ?
होते टैगोर तो मैं ज़रूर कहता
कि वैसे ही देश में बहुत सारे ईश्वर हैं
देश को भी एक और ईश्वर मत बनाओ
नहीं तो, राष्ट्रगान गाता हुआ कोई
हिटलर में बदल जाएगा
और सारी दुनिया भवबाधा पार कर जाएगी ।
इसीलिए कहता हूँ, भाई !
समझ बूझ चलने में मंज़िलें तय होती हैं —

इधर बहुत राहें आई हैं
उनका पता पूछ आगे का हाल-चाल जान
क़दम बढ़ाना नहीं तो ‘भूदान-यज्ञ’ में
धरती की राम-लीला होम हो जाएगी ।
अपने बिकने में क्यों बक़लम-ख़ुद बनते हो ।
अन्ततः लेखपाल की क़लम जब
तहसीलदार का दस्तख़त कमाएगी
तो राष्ट्रगान तो राष्ट्रगान राष्ट्रद्रोही नहीं पाएगा ?
क्या भरोसा चमार से छीन यादव को दी लाठी
कोई ठाकुर छीन ले जाए...

हो सकता है, इससे तुम एकाध दीवार और पक्की बना लो
पर ऐसा भी हो सकता है
तहसीलदार की घूसख़ोरी में
ज़िलाधीश तुमको पकड़े और यह नौकरी चली जाए
तब सफ़ेदी कराने का पैसा कहाँ पाओगे ?
ख़ुद की लगाई कँटबाँसी में फँस
चिथड़ा हो जाओगे ।

देवी-देवता ख़ुश-ख़ुश चान्दनी ज़र्दा बेच रहे हैं
सुमिरन की पतोहू उन्हीं की मनौती करती
कूड़ा सुर्ती फाँकती
अपने सड़े दाँत थूकती पड़ी है —
एक दिन विद्वान किसिम के मेरे एक साथी ने कहा —
भारतीय संस्कृति अपनी करुणा में इतनी महान है
कि पुण्य-पाप सुख-दुख अपने में
ऐसे समेटे है जैसे माँ अपनी औलाद।
मेरे मित्र की भाषा टैगोर की ज़िन्दगी की तरह बड़ी सम्भ्रान्त है
और उनके टिनोपाल धुले विचार
हर किसी को मोहित कर सकते हैं ।
सुमिरन का बेटा भी जब टूटी कुर्सी पर बैठ
दफ़्ती का मुकुट पहन
तख़्ते के मंच से हुकुम देता है ‘नौकर’
तो निश्चित ही उसके भीतर
भारतीय संस्कृति का बड़प्पन झाँकने लगता था
लेकिन दस कोस पैदल आई महरि के आगे
राजा की बोली — मेरे मित्र की दिव्य वाणी है
जो चिथड़ी हालत के सामने
सुमिरन के बेटे की नौटंकी कर रही है ।
 
मैं नहीं कहता टैगोर की कविता न बाँचो
देवी-देवता का फोटू न टाँगो
लेकिन इतना जानो कहीं उनके हाथ
घर के भीतर से कुण्डी तो नहीं खोल रहे हैं ?
जब भी कोई चाँद-सूरज छिपा
चौखट-चौखट चिराग़ जलाने लगता है
उसमें वही अविश्वास पैदा होता है
जैसे हाई स्कूल नक़ल-टीप पास
पीएच०डी० की उपाधि बाँटे ।

एक शिवाला बचाने को जब
सैकड़ों गाँव और शहर फूँके जाएँ
तो मेरे मित्र की बातें कितनी भी सफ़ेदपोश हों
ज़माने पर कालिख पोत जाती हैं ।

जब भी किसी झूठ को भजन बनाया जाएगा
लोग अपनी फूटी क़िस्मत पर
दूसरों की मूर्खता गाकर भीख ही तो माँगेंगे ?
क्या कोई नहीं देख रहा —
महान और पवित्र और विद्वान संविधान से
निकली हाईस्कूल पास लेखपाल की क़लम ?
जो रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम
सही-सही नहीं लिख सकती
भले ही अपना दस्तख़त अँग्रेज़ी में करती हो ।

सुमिरन के मरे बेटे के कटे हाथों से
क्यों राष्ट्रगान की सफ़ेद दाढ़ी नोच रहे हो ?
जिस चिथड़ी डायरी में मुझे ‘हूँह’ कर
एक विधवा को मारने की तस्वीर लिखी थी
उसी में एक बात मेरी भी लिख लो —
भरोसे यादव और सुमिरन की पतोहू में
सिर्फ़ सौ रुपए का फ़र्क़ है
लेकिन सौ से लगाए करोड़ों रुपयों के बीच का
फ़र्क पैदा करने की जो तजवीज़
तुमसे लिखाई जा रही है
उसे मिटाने के लिए ही मैं कहता हूँ
क़लम को तलवार की बजाय
कुल्हाड़ी में बदल लो
तभी सारा उलटा मामला सुलट जाएगा
नहीं हो, सौ रुपए में ख़रीदी भरोसे की ताक़त
कोई हज़ार रुपए में ख़रीद
तहसीलदार की घूसख़ोरी में
तुम्हें हवालात के भीतर ठेल आएगा ।

तलवार और कुल्हाड़ी के बीच झूलता
साँप जैसा राष्ट्रगान
लेखपाल की क़लम से उगी
ख़ुराफ़ात में घुस आया है ।