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लै कै उपदेश-औ-संदेस पन ऊधौ चले / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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लै कै उपदेश-औ-संदेस पन ऊधौ चले,
सुजस-कमाइबैं उछाह-उदगार मैं ।
कहै रतनाकर निहारि कान्ह कातर पै,
आतुर भए यौं रह्यौ मन न सँभार मैं ॥
ज्ञान-गठरी की गाँठि छरकि न जान्यौ कब,
हरैं-हरैं पूँजी सब सरकि कछार मैं ।
डार मैं तमालनि की औअर कछु बिरमानी अरु,
कछु अरुझानी है करीरनि के झार मैं ॥22॥