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लोक-लाज / पूनम सूद
Kavita Kosh से
बरामदे का बल्ब
जलता कुछ देर
फिर, बुझ-बुझ जाता
पिता ने तार से लटके
होल्डर को गौर से देखा
चुपचाप ला नया
बदल डाला
बल्ब से रोशन हो गया
पूरा बरामदा;
कुछ दिन से,
पीहर आती बेटी,
है-बुझी-बुझी सी
गौर से देखते हैं पिता
शायद समझते भी हैं
पर, कर देते विदा;
बिरादरी की खातिर
मन के बरामदे का
अंधेरा है स्वीकार
पर होल्डर बदलने को
नहीं है तैयार;