भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोक / ककबा करैए प्रेम / निशाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शीत ऋतुमे
सुरुजक किरिन लगैत अछि अमृत
ग्रीष्म ऋतुमे
गाछक छाँह लगैत अछि अमृत
बरखा ऋतुमे
बुन्न लगैत अछि अमृत।

हमरा सभकें सचेत नहि रहलाक कारणें
प्रकृतिक भेल अछि ई दुर्दशा
घटि रहल अछि अमृत
दिनोदिन जगमे
बढ़ि रहल अछि बिख
बिख केर कोरामे आबि कऽ
बिखाह भेल जा रहम अछि
लोक।