भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लौट आओ सुरंजना / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
सुरंजना ! मत जाओ वहाँ, मत जाओ
मत बोलो उस युवक से — करो नहीं बातें;
लौट आओ ! रुपहली आग से भरते आकाश की
इस रात — लौट आओ, सुरंजना !
लौट आओ इन लहरों में; लहरों में;
आओ, आओ, मेरे हृदय में लौट !
मत जाओ, मत जाओ, उस आदमी के साथ
दूर और दूर, मत जाओ और !
क्या कहना है तुम्हें उस से — उस से ?
आकाश के पार है आकाश,
माटी की तरह हो तुम आज;
उस का प्रेम है घास की तरह माटी पर ।
सुरंजना तुम्हारा हृदय है आज घास
हवा के पार है हवा
आकाश के पार आकाश !
(यह कविता ’सातटि तारार तिमिर’ नामक काव्य-संग्रह से)