लौटते हैं जो वे प्रजापति हैं / अज्ञेय
झुलसते आकाश के
बादलों को जला कर
शून्य में भी रिक्तता का
एक जमुहाता विवर बना कर
जब वे चले जाएँगे,
तब अन्त में एक दिन
रासायनिक साँपिनें पछाड़ खा कर
धरती पर गिरेंगी,
विषैले धुएँ की गुंजलकें खुल जाएँगी,
धैर्यवान् लहरों में
उन के अहंकारों के
विषव्रण धुल जाएँगे,
तब वे आएँगे
वे दूसरे : दुर्दम
चूहों की तरह नहीं
तिलचट्टों की तरह नहीं
घर लौटते विजेता मनुष्यों की तरह दुरन्त :
वे जिन्होंने
धरती में विश्वास नहीं खोया,
जिन्होंने जीवन में आस्था नहीं खोयी,
जिन के घर
उन पहलों ने नष्ट किये,
महासागर में डुबोये,
पर जिन्होंने अपनी जिजीविषा
घृणा के परनाले में नहीं डुबोयी
उन की डोंगियाँ
फिर इन तरंगों पर तिरेंगी।
अगाध असीम महासागर में
झुके हुए तालों की ओट में
प्रवाल-कीटों का गढ़ा हुआ
एक छेदों-भर छल्ला :
वसुन्धरा की नाभि,
आद्य मातृका की योनि।
ऐसी ही उपेक्षा में तो
बार-बार, बार-बार, बार-बार
अजर अजस्र शृंखला में
जनमेगा पनपेगा
ऐल मनु अजति, अधर्ष,
अविधीत, आत्मतन्त्र।
लौटते हैं दीन निःस्व नंगे जो
वे मानव पितर प्रजापति हैं।
उन्हें कभी कोई विष
डँस नहीं सकता।
नयी दिल्ली, 14 अगस्त, 1968