लौटना. / विष्णु खरे
उसे जहाँ छोड़ा था
कभी-कभी वहाँ जाकर खड़ा हो जाता हूँ
कूडे़ के जिस अम्बार को देख
वह लपक कर दौड़ गया था
अब वहाँ नहीं है
दरअसल अब कुछ भी वहाँ उस दिन जैसा नहीं है
मैंने उसे आधे दिल से पुकारा भी था
कि अगर लौट आए तो उसे वापस ले जाऊँ
लेकिन वह सिर्फ़ एक बार मेरी तरफ़ देख कर
मुझे ऐसा लगा कि जैसे हँसता हुआ
कूड़ा खोदने में जुटा रहा
उसके बाद मैं चला आया लेकिन कई बार लौटा हूँ
वह जगह अब एकदम बदल चुकी है
नई इमारतों दूकानों की वजह से पहचानी नहीं जाती
वह कूड़ा भी नहीं रहा वहाँ
वह सड़क अंदर जहाँ जाती थी
उस पर भी कुछ दूर तक गया हूँ
वह या उससे मिलता-जुलता कुछ भी दिखाई नहीं देता
कभी कभी एकाध आदमी पूछ लेता है
किसे देखते हैं भाई साहब
नहीं यूँ ही या कोई और झूठ बोल कर चला आता हूँ
कई कारणों से वहाँ जाना कम होता गया है
और अब तो बहुत ज़्यादा बरस भी हो गए
फिर भी कभी लौटता हूं सारी उम्मीदों के खिलाफ़
और जहाँ वह कूड़े का ढेर था उससे कुछ दूर
वह उतनी ही देर
याद करता खड़ा रहता हूँ कि कोई मददगार फिर पूछे नहीं
एक दिन ऐसे जाऊंगा कि कोई मुझे देख नहीं पाएगा
और बिना पुकारे पता नहीं कहाँ से
वह झपटता हुआ तीर की तरह आएगा
पहचानता हुआ मुझे अपने साथ ले जाने के लिए