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लौटाती हूँ / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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ये फल लो
ये फूल लो
ये जल लो
ये नवान्न
रस डाला जिसमें तुमने
उगाया, पकाया
तुम्हारा दिया
तुम्हें ही देना
हे अग्नि! तुम भी लो कुछ
हे जल! तुम भी लो कुछ
हे धरा! तुम भी लो कुछ
अर्पित करती हूँ
अर्जित किया हुआ
ये वाद्य लो
ये घण्टियाँ लो
ये नगाड़े
ये तुरही
ये डमरू
ये शंख
तुम्हारा ही शब्द
तुम्हारा ही नाद
तुम ही लो
सम्भालो अपनी माया
सम्भालो अपनी काया
हे सूर्य की किरणों
तुम आँखों की रोशनी लो
हे जल की लहरों
तुम खून लो
तुम मज्जा लो
हे धरा!
तुम माँस लो
तुम हड्डियाँ लो
सहर्ष देती हूँ
करती हूँ समर्पित
तुम्हारा दिया हुआ
तुम्हें ही
स्मृतियाँ भी लो
स्पप्न भी लो
आचार-विचार लो
मन की विकृतियाँ लो
इच्छाएँ लो
वासनाएँ लो
खींच लो प्राणों की तरह
पटको, धोओ
इस काया को
जिस-जिस से जो लिया
लौटाती हूँ सहर्ष
स्वीकार करो
करो ऋणमुक्त
ब्याज सहित लौटाती हूँ।